Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता | आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित निबंध

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मित्रता, आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित निबंध

हेलो दोस्तों समरीन इंस्टिट्यूट में आपका बहुत-बहुत स्वागत है आज हम आपको बताएंगे कक्षा 10 हिंदी चैप्टर 1 में मित्रता, आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित निबंध के बारे में इसीलिए आर्टिकल को पूरा ज़रूर पढ़ें ताकि आपको सही तरीके से समझ में आ सके तो चलिए शुरू करते हैं ।

संकेत बिंदु:- 

(1) प्रस्तावना

(2) मित्रता से आशय

(3) सच्चे मित्र की पहचान

(4) नव युवक का समाज में प्रवेश

(5) निष्कर्ष

1. प्रस्तावना:- प्रस्तुत निबंध आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखा गया सामाजिक और व्यवहारिक तथा ह्रदयइक धारणाओं पर आधारित है ।

2. मित्रता से आशय:- मित्रता मनुष्य की व्

व्यवहारिक परिवृत्ति में से एक है मित्रता मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में शामिल हैं । मित्रता एक ऐसा संबंध है जिसके अंतर्गत आत्म विश्वास का कार्य बहुत सरल हो जाता है । मित्रता से आशयकेवल जान पहचान बढ़ाना नहीं, बल्कि आपस में सहभागी बनकर रहने वाले अर्थात हर परिस्थिति  में सही परामर्श देना, सामर्थ बढ़ाना, शुद्ध ह्रदय होना, पुरूषार्थ तथा सत्यनिष्ठा और अपने मित्र के प्रति कर्मनिष्ठ होना ही मित्रता है ।

3. सच्चे मित्र की पहचान:- सच्चा मित्र पथप्रदर्शक के समान होना चाहिए जिस की सहायता से एक मित्र अपना लक्ष्य प्राप्त कर सके एक मित्र में सहानुभूति की प्रवृत्ति होनी  चाहिए, एक मित्र को दूसरे के प्रति प्रगाढ़ (गहरा) विश्वास की भावना होनी चाहिए, सच्चे मित्र को ऐसा होना चाहिए कि वह ना ही हर निर्णय पर बिना विचार विमर्श के सहमति दे और न ही ऐसा हो कि हमारी हर बात को ही ऊपर रखे बिना किसी हस्तक्षेप के हमारी बात मान ले क्योंकि इस अवस्था में मनुष्य निस्सहाय और निर्बल हो जाता है तथा उसकी वैचारिक और योग्य आयोग्य सोचने की छमता में निर्बलता आ जाती है सच्चे मित्र की प्रवृत्ति ऐसी होनी चाहिए जिसकी उपस्थित में मनुष्य की पवित्रता का नाश न होकर बल्कि उसकी पवित्रता और बढ़ जाए ।

4. नव युवक का समाज में प्रवेश:- एक नव युवक जब समाज में प्रवेश करता है तो उसका ह्रदय शुद्ध और निष्कलंक तथा सभी प्रकार की बात और किर्याओं को स्वीकार करने की अवस्था मे होता हैं फिर चाहे वे उचित हो या अनुचित अपराध हो या परोपकार मनुष्य जिस प्रकार की संगत में रहता है उसी के अनुकूल हो जाता है इस अवस्था में उसकी प्रवृत्ति के जिम्मेदार उसकी मित्रता का स्वभाव है और वे मित्र जिनका आचरण जाने बिना मनुष्य उनसे मित्रता कर लेता है मनुष्य यदि बुरी संगत के मित्रों में प्रविष्टि (शामिल) हो गया हो तो यह सदैव उसे विनाश और अवनति के मार्ग पर ले जाती है । और यदि यही युवा सुसंगत और विवेकवान तथा नीति-विशारद (नीति का विद्वान) तथा सभ्य प्रवृत्ति में मित्रों की सहभागिता में आ जाय तो इसकी प्रतिमा एक देवता के समान हो जाती है ।

5. निष्कर्ष:- मनुष्य को मित्रता से पहले मित्रता का उद्देश्य समझना चाहिए क्योंकि निरुद्देश्य की जाने वाली कोई भी क्रिया और कोई भी संबंध बिना विचार विमर्श के निरर्थक सिद्ध होता है तथा लक्ष्य में बांध उत्पन्न कर देता है और मनुष्य को सदा अवनति की ओर ले जाता है तथा मनुष्य का धीरे धीरे पतन हो जाता है और उसे पता भी नहीं चलता है । मित्र केवल हमारे गुणों की प्रशंसा करे और न ही निंदनीय हो बल्कि हमारे प्रीति पात्र होने चाहिए और स्वछंद प्रकृति के होने चाहिए और मित्रों को एक दूसरे के प्रति मिरदुल ह्रदय होना चाहिए मित्रता निस्वार्थ होनी चाहिए, मित्रों को सदैव एक दूसरे के लिए सेवा भावी होना चाहिए ।

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